प्रभुपाद भारत के आद्यात्मिक राजदूत
कृष्णकृपामूर्ति ए .सी भक्तिवेदांत स्वामी, जो बाद में श्रील प्रभुपाद के नाम से विघ्यत हुए, विश्व्यापी ख्याति १९६५ में उन्हें अमेरिका पहुंचने के पश्च्यात मिली। भारत से प्रस्थान करने के पूर्व उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी थी ; अगले बारह वर्षो में उन्हें साठ से अधिक पुस्तके लिखनी थी। भारत छोड़ने के पूर्व उन्होंने एक शिष्य को दीक्षित किया था लेकिन अगले बारह वर्षो में उन्हें चार हज़ार से भी अधिक शिष्यों को दीक्षित करना था। भारत चोर्ने के पूर्व शायद ही किसी ने विश्वास किया हो की वे कृष्णभक्तो की विश्व्यापी संस्था की अपनी कल्पना को पूरा क्र सके;लेकिन अगले दशक में उन्हें अंतराष्टीय कृष्णभावनामृत संघ को बनाकर उससे चलना था और उसके एक सौ से अधिक केंद्र खोलने थे। जहाज से अमेरिका प्रस्थान करने के पूर्व वे कभी भारत से बाहर नहीं गए थे; लेकिन अगले बारह वर्षो में उन्हें कृष्णभावनामृत आंदोलन का प्रचार करते हुए विश्व के कई चक्कर लगाने थे। श्रील प्रभपाद साक्षात् भगवन पार्षद थे तथा कृष्णभावनामृत का प्रचार करने के लिए प्रकट हुए थे। उनके जन्म के बाद जब उनके मातापिता ने बंगाली परंपरा अनुसार बालक की जन्म कुंडली उसके भविष्य वाचन के लिए एक ज्योतिषी को दी तब ज्योतिषी ने एक विशिस्ट भविष्वाणी की यह बालक सुबह गुणों से युक्त होगा और सत्तर वर्ष का होगा तोह ये समुद्रपार जायेगा ,महान धर्म-धुरंधर होगा और १०८ मंदिर स्थापित करेगा। यह पुस्तक “प्रभुपाद “श्रील प्रभुपाद की दिव्य जीवनी तथा उसके रहस्यमय सीखो और उनकी लीलाये तथा प्रभुपाद लीलामृत के तत्व स्वरूप को प्रस्तुत करती है।
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